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कुछ अनकहा

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 एक सामान्य इंसान भागता है रिश्तों के लिए... अपनों के लिए... एक अच्छे भविष्य के लिए...। ऐसा होता है कि अगर अच्छा भविष्य न भी हो (यहां न होने से मेरा तातपर्य है कि अगर कोई अच्छी बड़ी नौकरी न होकर एक छोटी नौकरी भी हो) तो इससे काम चल जाता है मगर अगर सब कुछ होते हुए भी अच्छे रिश्ते न रहें तो आदमी फिर आदमी नही रह जाता है। कोई आखिर  कब तक रिश्तों के पीछे भागे? ऐसे ही भागते रहने के बाद एक  समय ऐसा आता है जब इंसान इन सब रिश्तों से दूर भागने लगता है। स्थायित्व की ख़ोज में जाना चाहता है वह।   मेरे जीवन का अनुभव कहता है कि बहुत सी बाते ऐसी होती हैं जो कभी कही नहीं जाती। वे बातें हमेशा भीतर ही रह जाती हैं। और कोई इंसान घुटता रहता है अंदर ही अंदर। एक ऐसे शख्श के बारे में मैं जानता हूँ। कभी 2008 का कोई महीना... एक दफा कॉलेज में इलेक्ट्रोमेग्नेटिज्म की क्लास के बाद सब छात्र लोग चर्चा कर रहे थे तो एक ने उससे पूछा था कि आगे पोस्टग्रेजुएट के बाद क्या करोगे? वह  इस सवाल से थोड़ा घबरा गया था। जरूरी है क्या के जो वह लड़का उस वक्त चाहता था वह उसे आने वाले वक्त में मिल ही जाता ? उसने कोई जवाब नही दिया। औरों ने

मासूम ख़तावार

 कह नही सकते कि उस शख्श पे क्या गुजरती होगी जो ये जानता है कि जो गलती उसने नही की है फिर भी उसने सबसे उसके लिए माफी मांगी मगर  किसी ने उसे मुआफ़ नही किया हो। किसी और के किये की सजा किसी और को मिलना कहाँ तक जायज है। पता नहीं कोई ऐसा शख्श भी रातों को कैसे सोता होगा जो जानता है फलां शख़्स ने वह जुर्म नही किया मगर उसने किसी और को बचाने की खातिर उसने सिर्फ जुर्म का एतिराफ़ किया है।  सड़क पर लोग इकट्ठे थे। मैंने देखा एक कार सड़क के किनारे खड़ी थी और भीड़ बेतरतीब तरीके से एक रिक्शेवाले को घेरे थी। मैंने ध्यान दिया कि उसके रिक्शे का आगे वाला पहिया टूट गया था। देखते ही कोई भी बता देगा के इस गाड़ीवाले की टक्कर से ऐसा हुआ होगा। कारवाला सुटिड बूटिड था वहीं रिक्शेवाले पर ठंड से बचने लायक कपड़े भी बदन पर नही पहने थे। उसके चेहरे को गौर से देखा तो पाया कि मेरे आने से पहले उस पर दो चार लोगों ने हाथ साफ किया है। मेरे देखने तक भी रिक्शेवाले को गर्दन से पीछे तक कारवाले ने पकड़ा हुआ था। कारवाले कि हाइट मेरे हिसाब से रिक्शेवाले से एक फिट ऊपर रही होगी।  आप सोचिए कि जब खुदा ने आपको किसी से हर एस्पेक्ट में ऊंचा रखा हो औ

अपना अपना खुदा - अंतिम भाग

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  (भाग 1 से आगे जारी) बाहर खड़े खड़े मेरी निगाह एक व्हील चेयर पर बैठे बूढ़े आदमी पर जाती है । इस व्हील चेयर को एक बूढ़ी औरत धक्का देकर धीरे धीरे चला रही है। ये दोनों नजदीक आते जाते हैं तो दृश्य और साफ होता जाता है। दोनो के पास ठंड से बचने लायक कपड़े तक नही है। मैं गरीबों के नसीब को कोसने लगता हूँ। मेरी नजर में तकलीफों के अपने पहले से ही तय रास्ते होते हैं। जब तकलीफें आती हैं तो फिर आए ही जाती हैं। उनके बीच खुदा ने कोई हदबंदी नही बनाई। ऐसा लगता है खुदा खुद तकलीफें बहुतों की झोली में डालकर उन्हें दुनिया मे भेजता है और यह निर्धारित करने की कोशिश में रहता है वह इंसान मुसीबतों का कितना बोझ उठा सकता है। मैं सोचता हूँ ये बूढ़ी औरत सीधे ही निकल जायेगी मगर यह क्लिनिक की ओर मुड़ जाती है। मुझे पहली नजर में लगता है कि ये भीख मांगकर गुजारा करते हैं और इसी उम्मीद में यह हम लोगों की तरफ आ रही है मगर वह क्लिनिक के बाहर आकर करीब करीब मेरे पास ही खड़ी हो जाती है। व्हीलचेयर भी उसके साथ है। मैं उन्हें गौर से देखता हूँ। बूढ़ी औरत सूख कर कांटा हो चुकी है। बाल सफेद और माथे पर चिंता की लकीरें। उसके शरीर  में जान नही

अपना अपना खुदा - 1

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  मंटो...कौन मंटो? वही अश्लील कहानियां लिखने वाला... वही न!!!  मगर मंटो ने कहा था कि अगर मेरी कहानियां अश्लील लगती हैं तो जिस समाज में आप रहते हैं वह अश्लील है, गंदा है। मेरी कहानियां तो सिर्फ सच दर्शाती हैं। असलियत यही है। असल जिंदगी की कहानियां बहुत अधिक हृदय विदारक हो सकती हैं क्यों कि जिंदगी की जद्दोजहद  का दर्पण वहीं कहानियां होती हैं जो के हमारे सामने नही आती, जिनकी चर्चा बहुत कम होती है।  कोई खुद से ही कितने संवाद कर सकता है? कोई कब तक अकेलेपन में जिंदगी गुजार सकता है?  हर पल जिंदगी आगे ही भागी जाती है।  कई बार ऐसा लगता है कि एक मोड़ पर आकर ईश्वर ने भी हम पर से नियंत्रण छोड़ दिया है । इन्ही अनियंत्रित क्षणों में ही तय होता है आदमी का चरित्र, उसका भविष्य, आगे की दिशा...सब कुछ। हर क्षण का एक कटु सत्य होता है।  मुझे पिछले दो तीन दिन से हल्का सरदर्द था जो घरेलू नुस्खों के बाद भी ठीक न हो पा रहा था। नींद से उठकर मैंने सबसे पहले शहर के मशहूर डॉक्टर के यहां फोन करके नम्बर लगवाया। यह पहुंचा हुआ डाक्टर है और 50 मरीज होने के बाद फिर उठ जाता है। कल नम्बर लगवाने के लिए फोन करने में दे

उदास शामें

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" अब ये भी नही ठीक के हर दर्द मिटा दें कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिये हैं..."" जब मैं इस पोस्ट को लिख रहा हूँ तब उस हादसे को हुए पूरे छह साल गुजर गए हैं।  सोच रहा हूँ अगर गमों से मन को कुछ निजात मिले तो अगले साल से कुछ अच्छा लिखूंगा।  आप में से किसी ने 1990 में आई  " डेज ऑफ़ बीईंग वाइल्ड" फ़िल्म देखि हो तो पता होगा ...यह एक उदास खालीपन से पूरी भरी हुयी फिल्म है. इसके किरदार कितने रंगों का इंतज़ार जीते हैं...टेलीफोन की घंटी की गूँज को अपने अन्दर बसाए... कैसा अकेलापन होता है कि अपने सबसे गहरे दर्द को एक नितांत अजनबी के साथ बांटने के लिए मजबूर हो जाता है कोई ...  इस शुरुआत में एक अंत की गाथा है...एक कहानी जो आपको सबसे अलग कर देती है...फिल्म जहाँ ख़त्म होती है...वहीँ शुरू हो जाती है...you are always in my heart ... --- मौत के पहले के आखिरी लम्हे में वो एक अजनबी से गुज़ारिश करता है कि उस लड़की को हरगिज़ न बताये कि वो वाकई उसे इस आखिरी लम्हे में याद कर रहा है. कि यही उसके लिए बेहतर होगा...कि वो कभी नहीं जाने. ममा आज तुम्हारी बहुत याद आई... और भी कितने लोगों की याद आई